हमारा अज्ञान सबसे पहली समस्या है। हम अपनी क्षमताओं से अवगत नहीं होने के कारण अपने को कमजोर मानते हैं। हमारा मस्तिष्क रूपी बायो कम्प्यूटर अपनी धारणाओं से चलता है। मस्तिष्क वही करता है जैसा कि उसको धारणाएं चलाती हैं। इसको हमारे माता-पिता, शिक्षकों, मित्रों व पड़ौसियों ने जैसी धारणाओं से भरा है वैसे ही यह कार्य करता है। अधिकांश धारणाएं हमारे बिना चाहे ही भर जाती हैं। इस बेहोशी के कारण व्यक्ति स्वयं को हीन, कमजोर व अक्षम समझता है।
धारणाएं मस्तिष्क रूपी सुपर कम्प्यूटर में कैसे घुसती हैं ? एक औसत बच्चा किशोर बनते-बनते माता-पिता, शिक्षकों, मित्रों, पड़ौसियों व परिवार द्वारा 148000 बार टोका जाता है। ‘‘तुम्हें कुछ नहीं आता है’’, ‘‘चुप रहो’’, ‘‘तुम कुछ नहीं कर सकते’’, ‘‘बीच में मत बोलो’’, ‘‘ज्यादा होशियार मत बनो’’, ‘‘तुम्हें क्या पता है, हमने दुनियां देखी है’’, ‘‘दुनियां बड़ी खराब है’’, इस तरह के संवाद से व्यक्ति का मस्तिष्क नकारात्मक हो जाता है। ऐसे में व्यक्ति स्वयं को असुरक्षित व कमजोर समझने लगता है।
शारीरिक विकलांगता से भी अधिक जहरीली है इस तरह की मानसिक विकलांगता।
मानव मस्तिष्क की कार्य प्रणाली पर एक कहानी याद आती है -
अरब के रेगिस्तान में ऊँटों के काफिले इधर से उधर घूमते रहते थे। एक समय की बात है कि एक ऊँटों का काफिला रात्रि विश्राम के लिये एक सराय में ठहरा। उस काफिले में सौ ऊँट थे। ऊँट मालिक जब ऊँटों को खूंटी गाड़ कर बांधने लगा तो एक रस्सी कम पड़ गयी। निन्यानवें ऊँटों को तो रस्सी से बांध दिया गया लेकिन एक ऊँट बच गया। तब उस काफिले का मालिक सराय के बूढ़े मैनेजर के पास एक रस्सी की गुहार लेकर गया। मैनेजर ने बताया कि उसके पास रस्सी तो नहीं है लेकिन वह ऊँट को बांधने की कला जानता है।
सराय के मैनेजर ने बचे हुए ऊँट के पास जाकर खूंटी गाड़ने का अभिनय किया व रस्सी खूंटी से बांध कर ऊँट की गर्दन के पास अपना हाथ इस तरह ले गया जैसे सचमुच रस्सी से बांध रहा हो। इसके बाद उसने कहा कि जाओ, तुम्हारा ऊँट नहीं भागेगा।
दूसरे दिन प्रातः काफिले के मालिक ने निन्यानवें ऊँट जो बांधे थे वे छोड़ दिये। सभी ऊँट खड़े हो कर चलने लगे। लेकिन सौवें ऊँट को वह उठाने लगा एवं उसकी पिटाई भी की लेकिन वह ऊँट टस से मस नहीं हुआ। तब काफिले वाला मैनेजर के पास गया कि आपने कौनसा मंत्रा कर दिया। मेरा ऊँट उठ नहीं रहा है। इस पर मैनेजर ने पूछा कि तुमने उसकी रस्सी खोली या नहीं। ऊँट वाला बोला, ‘‘जब रस्सी बांधी ही नहीं थी तो खोलता कैसे ?’’ इस पर मैनेजर उठ कर ऊँट के पास गया व रस्सी खोलने का अभिनय किया व ऊँट को उठाया तो वह उठ कर चलने लगा।
हम सब भी अज्ञात, अदृश्य इसी तरह की धारणाओं की रस्सियों से बंधे हुए हैं। ऊँटों का तो पता नहीं, लेकिन मनुष्य पर यह बात शत-प्रतिशत सही बैठती है।
सीमित धारणाएं व्यक्ति के सोच को संकुचित करती हैं। व्यक्ति गहराई से, विस्तार से सोच नहीं पाता है। हमारी नकारात्मकता हम पर ढ़ेर सारे बंधन लगा देती हैं जिस में बहुत सी ऊर्जा एवं समय खर्च हो जाता है। इससे भी हम अपनी क्षमता का उपयोग नहीं कर पाते हैं। स्वयं के प्रति अविश्वास एवं संदेह, आत्मविश्वास की कमी, स्व-सम्मान का अभाव हमें महान् कार्य करने से रोकता है। जिसे अपने पर भरोसा नहीं होता वह अपने मस्तिष्क पर भी भरोसा नहीं कर पाता है। अर्थात हम अपनी अनेक तरह की कमजोरियों के कारण अपने ऊर्जा भण्डार, शक्ति स्रोत मस्तिष्क का पूरा उपयोग नहीं कर पाते हैं।
प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क के भीतर विसंगत धारणाओं के कारण महाभारत का युद्ध चल रहा है। हम सब एक पल सोचते हैं कि यह करूं व दूसरे पल दूसरा विचार करते हैं जो कि उसके विपरीत होता है। इस तरह हम एक युद्धभूमि बन चुके हैं। इस प्रकार हमारी ताकत स्वयं से ही लड़ने में खर्च हो जाती है एवं हम अपने मस्तिष्क की पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पाते हैं।
हम अपनी आदतों, वृत्तियों में जीते हैं। हम स्वतः स्फूर्त, सहज जीवन नहीं जीते हैं। जैसी जिसकी आदतें पड़ गयी हैं वह उन्हीं लहरों में भटकता रहता है। कोई दिन भर प्रत्येक कार्य उतावल से करने में लगा है तो कोई मंद गति से। कोई आलस्य से पड़ा हुआ है तो कोई कार्य की अधिकता से परेशान है।
मनुष्य एक ऐसी बैलगाड़ी है, जिसके चारों ओर दो-दो बैल बंधे हैं। ये सभी बैल अपनी-अपनी दिशा में गाड़ी को खींच रहे हैं। ऐसे में मनुष्य कहीं नहीं पहुंच पाता है और अपने मस्तिष्क की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पाता है।